अर्हत् धर्म है रत्नों की खदान


प्रेरणाप्रद है गणि पद्मविमालसगरजी की संयम यात्रा


तिथि वैशाख शुक्ल षष्ठी और तारीख 30 अप्रैल को जिनका 31 वां दीक्षा दिन, वे गणि प्रवर पद्मविमलसागरजी महाराज बहुत बड़ी हस्ती नहीं हैं और सबके लिए जाना-पहचाना नाम भी नहीं हैं, लेकिन उनके 30 वर्षों की सन्यस्थ यात्रा बहुत प्रेरणाप्रद है।


प्रव्रज्या ग्रहण के पांचवें दिन वे बीमार पड़ गये। यह बीमारी बहुत लंबी चली। काफी उपचार किये गये। रोज उन्हें उल्टियां होतीं। आहार पेट में टिकता ही नहीं था। वे दुबले होते गये। यह अशाता वेदना निरंतर 11 वर्षों तक चली। इन वर्षों में करीब 6000 से अधिक उल्टियां हुईं।


इतनी पीड़ा के बीच भी वे मन से कमज़ोर नहीं हुए। ना ही उन्होंने ये बातें अपने परिवारजनों से कभी कही।


शुरू से ही उन्हें अरिहंत देव के कर्म सिद्धांत और अपने गुरु पर अटूट आस्था है। वे मन पूर्वक संयम साधना में निमग्न रहे। दुःख-दर्द के इस दौर में भी उन्होंने कभी किसी अपवाद मार्ग को नहीं अपनाया। सब समता भाव से सहते गये।


 *दीक्षा जीवन के तीन दशक में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता, जब उन्होंने मंत्रजप न किये हों। बड़ी तल्लीनता से वे अनेक मंत्रों को नियमित जपते हैं। लेकिन किसी चमत्कार या प्रभाव के लिए नहीं। लम्बी बीमारी के बीच भी मंत्रजप का यह क्रम कभी टूटा नहीं। ना ही कभी मंत्र संख्या कम की।*


ये 30 वर्ष निःस्पृहता के उदाहरण हैं। गणिवर्यश्री सामान्य-मध्यम परिवार से हैं, फिर भी उन्होंने कोई वस्तु या पैसा, कभी किसी से मांगा नहीं, कुछ चाहा नहीं। किसी से कुछ लिया नहीं और किसी को कुछ दिलाया नहीं।


कभी 500 तो कभी 1000 गाथाओं का स्वाध्याय 27 वर्ष तक नियमित किया। लम्बी बीमारी और हॉस्पिटल में सर्जरी के बावजूद यह क्रम जारी रहा।


24 वर्षों तक लोक परिचय से दूर रहे। प्रारंभ से अब तक अपने गुरु की सेवा-सुश्रुषा और सहवर्तियों के चारित्रिक निर्माण में ही वे समर्पित हैं।


(पूज्य गुरुवर और कुछ भक्त शिष्यों से मिली जानकारी के आधार पर आलेखित, प्रो. अरिष्टनेमि जैन, दिल्ली)