देवताओं की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए


वैदिक काल के देवता


एकशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं, ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिरवी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य भ्रंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनिल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, वृहत, क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हैं। नेऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), कुसुमदंत, वरुण, असुर, शोष और राजपदमा तथा वायव्य कोण से प्रारम्भ करके तत अनन्त वासुकी, मल्लार, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नौवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में वैवस्वान, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजपदमा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में साविग, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रूद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है इनके मस्तक पर शिरकी स्थित है। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर स्थल और स्कंध पर स्थित हैं।
सत्य आदि पांच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहन्दात पाश्र्व पर हैं, वैवस्वान उदर पर हैं, सम उरू पर, गंधर्व ाजनु पर, भृंगराज जंघा पर और मृग स्थिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तु पुरुष के दाईं ओर स्थित हैं। बाएं स्तर पर पृथ्वी, अधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट मुख्य, अहिरोग व पाप यक्ष्मा, हाथ पर रूद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर कुसुमदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तु पुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं। हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पिता हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिका या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्री वृद्धि होती है, शांति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना येजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृहस्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बुरे परिणाम साथ-साथ मिलते रहते हैं।


(गोंडल संप्रदाय के महामंत्र प्रभावक पू.जगदीशमुनि म.सा. के सुशिष्य है।)