जरूरी बातों को ग्रहण किया जाएं

बचत के महत्व को समझें


संकलन - जीवन जैन/नागदा


बहुत सी बातों, रीति रिवाज़ों या कहें कि आदतों के लिए हम भारतीयों को कोसा जाता है, हमारा मज़ाक बनाया जाता है, कई बार विदेशियों द्वारा और ज़्यादातर अपने ही खुद को आधुनिकता की दौड़ में सबसे आगे मानने वाले भारतीयों द्वारा भी।


क्योंकि हमारा जीवन जीने का तरीका, हमारी सभ्यता या संस्कृति कुछ इस तरह की बनी हुई है कि समय के साथ चलने के बावजूद हमें कहीं न कहीं पिछड़ेपन का एहसास कराया जाता है। पर आज इस मुश्किल की घड़ी में, इस महामारी में हमारी वही जीवनशैली आशीर्वाद से कम नहीं लग रही।


हमने बचपन में देखा होगा हमारी माँ, दादी या नानी पूरे साल का अनाज भर लेते थे, मसाले कूटकर पूरे साल के लिए वो बड़ी बड़ी काँच की बरनियो में रखे जाते थे, यहाँ तक कि शक्कर भी पूरे साल के लिए भर ली जाती थी। अचार ,पापड़ पूरे साल के लिए बनाए जाते थे, वड़िया आलू की सूखी वेफर्स ,चावल के पापड़ इत्यादि घर की महिलाए, पड़ोसने मिलकर बनाती थी कारण शायद ये था कि उनके पास वाहन व्यवहार की इतनी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी सो साल में एक बार इन सब बातों के लिए एक बार वक़्त और पैसा दोनों निकाला जाता था। 


हम उनसे मॉर्डन ज़माने में पैदा हुए और ये सब पूरे साल के लिये स्टोर करना या लाना बिनज़रूरी झंझट समझने लगे, सब कुछ तो मार्किट में पूरे साल मिलता है क्या ज़रूरत है इतना सामान इकट्ठा करने की। महीने में एक बार सुपरमार्केट जाओ और ट्रॉली भरके सामान ले आओ।


पर देखिए समय की बलिहारी, आज लोग सामान भरने के लिए तरस रहे हैं, ज्यादा से ज्यादा मिल जाये उसके लिए यहाँ से वहाँ भटक रहे हैं, कड़ी धूप में लाइन में घंटो खड़े होकर भी सामान ले रहे हैं ताकि अगर ऐसी परिस्थितयां आगे और बढ़ी तो अपने परिवार को दाने दाने के लिए तरसना ना पड़े। और विडंबना ये है कि इस नॉन डिक्लेरेड इमरजेंसी में आप ज्यादा सामान चाहते हुए, पैसे होते हुए भी नहीं खरीद सकते।


अचार बनाने की कला को तो लुप्त होती कलाओं में शामिल कर लेना चाहिए क्योंकि उसे हम समय की बर्बादी समझते हैं और बाज़ार से ठूस ठूसकर विनेगर भरे हुए अचार या चटनियाँ लाना अपनी शान। कामवाली और इतने आधुनिक होम अप्लायंसिस के चलते काम का बोझ हल्का होने के बावजूद और आज के हेल्पफुल पतियों की जनरेशन होने के बावजूद हम पापड़, चकली बनाने में अपनी ज़िंदगी नष्ट करना नहीं चाहते। आज ये हालात हैं कि हम सब घर का अपने हाथों से बना बिना कोई preservative डाले, शुद्ध सात्विक आहार लेना चाहते हैं।


हमारी जनरेशन खाने का व्यय भी बहुत करती है, चाहे घर में बना हो या रेस्टोरेंट में। इन्फेक्ट ज्यादा ऑर्डर देकर प्लेट में जूठा छोड़ देना कई लोग अपनी शान समझते हैं आज वही लोग एक एक दाने की कीमत पहचान गए हैं।


हमारे माँ बाप ने हमारे लिए खूब पैसे बचाये, उनका मंत्र ही था पहले बचत करो फिर खर्च करो। बेचारे खुद चार शर्ट या साड़ी में रहे पर उन्होंने हमें सारी सुविधाएं दी, आधे से ज्यादा लोगों को आज भी घर लेने जैसी बड़ी इन्वेस्टमेंट पे अपने माँ बाप से अधिक्तम मदद मिल जाती है। अगर ये ना हो तब भी किसी भी मुश्किल परिस्थिति में आपका एकाउंट खाली हो सकता है पर आपके माँ बाप के पॉकेट में आपको मदद करने के लिए हमेशा पूंजी रहती है। भले ही माँ बाप कितने ही पैसेवाले या कितने ही मध्यमवर्गीय क्यों ना हो...क्यों?? क्योंकि वो हमारी तरह क्रेडिट कार्ड के भरोसे नहीं जिये। उन्होंने जितनी चद्दर लंबी थी उतने ही पैर पसारे।


हमारी जनरेशन बचत को बेवकूफी मानती है, म्यूच्यूअल फण्ड में शायद इन्वेस्ट करेंगे पर अपने सेविंग एकाउंट में कम से कम बैलेंस होगा, जब कि आज इस lockdown की परिस्थितियों में जब धंधे ठप्प हो गए है, नौकरियां बंद है तब सबसे मददगार हमारा ये सेविंग एकाउंट ही है। क्योंकि नौकररी वाले को तो फिर भी सैलरी मिल जाएगी पर जिनके अपने व्यवसाय है उनका क्या? जिन्होंने बचत की होगी वो आज फाइनेंसियल रूप से थोड़े बहुत निश्चिंत होंगे पर जिन्होंने नहीं की उनके लिए सोचना भी मुश्किल हो रहा होगा कि अगर ये लंबा चला तो उनका क्या होगा...


जिनको खाना बनाना नहीं आता था वो सोचते थे नहीं आता तो क्या, कुक रख लेंगे, बाहर से ऑर्डर कर देंगे पर आज वो ऑप्शन भी खुला नहीं है। जिन्हें घर के काम करने नहीं आते थे या जिनको करने ही नहीं थे वो सोचते थे कि ख़ुद से करने ज़रूरी है क्या? हमारे पास पैसे हैं बाई से करवा लेंगे पर आज वही लोग झाड़ू हाथ में लिए अपनी कमर को झुकाये बाअदब काम कर रहे हैं क्योंकि चाहकर भी ,डबल सैलरी देकर भी आप अपनी बाई को नहीं बुला सकते। और सफाई भी ज़रूरी है क्योंकि इस महामारी के समय में आप गंदगी में भी तो नहीं रह सकते।


जिन पुरुषों ने कभी घर में काम नहीं किया वो भी आज रसोई में घुसे हुए हैं सिर्फ पत्नी को हेल्प करने के लिए ही नहीं, बल्कि बैठे बैठे खुद मानसिक रोगी ना हो जाये इसलिए खुद को व्यस्त रखने के लिए या कहें कि आज उन्हें भी पता चल गया कि ज़िन्दगी में कुछ भी हो सकता है, सब कुछ आना चाहिए।


नहाकर रसोई में प्रवेश, बाहर से आने के बाद सबसे पहले हाथ मुंह धोना, कपड़े धूप में सुखाना, सुबह शाम प्रभु को याद करना, ये सभी बातें हमें बचपन में सिखाई गयी थी किसी ने याद रखी किसी ने नहीं पर आज हम सब जाने अनजाने में ये सब फॉलो कर रहे हैं।


क्योंकि आज जो परिस्तिथिति है वो मानवजन्य नहीं है, हम में से किसी ने शायद ऐसा सोच नहीं था कि एक दिन हम घरों में यूं बंद हो जाएंगे वो भी सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए। ये सरकार के द्वारा दूसरे देश के सामने घोषित किया युद्ध नहीं है कि 15 दिन महीने में खत्म हो जाएगा, ये एक ऐसा युद्ध है जिसे हमें मिलकर लड़ना है और सरकार के पास lockdown के सिवा कोई रास्ता नहीं है चाहें आप कितनी भी गालियाँ दे दो।


ऐसी कई बातें हैं जो हमारी संस्कृति या कहिए कि हमारे परिवार ने हमें बचपन से सिखाई पर बड़े होते होते हम इतने आधुनिक हो गए कि हमारे बड़ों की जीवनशैली हमें छोटी दिखने लगी।


ज़रूरी है कि उनकी अच्छी बातों को आज से ही ग्रहण किया जाए, हमारी आनेवाली पीढ़ी को वो सब सिखाया जाए। कुछ नकारात्मकता हर संस्कृति, हर देश हर परिवार में होती है पर सकारात्मकता को छोड़ देना कहीं से भी जायज़ नहीं ।